जनवरी की उस कड़कड़ाती सुबह शहर की सबसे व्यस्त सड़क के किनारे मैं रामभरोसे के खोमचे पर चाय पीने जैसे-तैसे पहुंचा। शरीर की सारी हड्डियाँ किसी कम्पाउंड पण्डुलुम की तरह औसिलेट कर रहीं थी। खोमचे के सामने पतली चीथडनुमा बनियान पहने, हमारी अनौपचारिक अर्थव्यवस्था के प्रतीक, एक बुज़ुर्ग मज़दूर, जिन्हे वहां के बाकी बेघर छोटे महाराज के नाम से बुलाते थे, नाक के बाल तोड़ते हुए किसी को हड़का रहे थे - "एएए! कुत्ते को क्यूँ छेड़ता है। कुत्ता भी वापस छेड़ देगा तो भरी जवानी में रोता रोता अस्पताल जाएगा। ये तेरे घर का पालतू टॉमी नहीं, सड़क का आवारा टॉमी है।"
भारतवर्ष में टॉमी शब्द के माने बाकी दुनिया से अलग हैं। इसका अर्थ जब टॉमी हिलफिगर को पता चला तो एकदम आग बबूला होकर बोले - "यदि मुझे पता होता कि मेरे बनाए कपड़े हिन्दुस्तानी पहनेंगे तो मैं कभी कपड़े बनाता ही नहीं "
अब उन्हें ये कौन समझाए कि हिन्दुस्तान में उनके बनाए कपड़े पहनने की हैसियत कोई हिन्दुस्तानी नहीं रखता।
खैर मैंने उन फटी बनियान वाले आदरणीय से पूछा -
"महाराज! आप रात भर सड़क पर नंगे बदन सोते हैं आपको अग्नि देव से कोई वरदान प्राप्त है क्या?"
"तुम भी सड़क पर सोया करो ठंड कम लगेगी।"
गुरबत से बड़ा कोई व्यंगकार नहीं है इसीलिए गरीब की हर बात में व्यंग होता है।
"और सड़क पर सोने में कोई मनाई है क्या? अपना देश है। अपना राज है। जहां मन चाहे सो जाओ।"
प्रजातंत्र का महत्व वही समझ सकता है जो असल में आवारा हो। घरों और कोठियों में प्रजातंत्र नहीं चलता। घर परिवारों में एक मुखिया निर्धारित होता है। सड़कों पर सभी राजा हैं। कुत्ते भी और इंसान भी। आवारा कुत्ते और बेघर इंसान में कुछ ज़्यादा फ़र्क़ नहीं है। बस इतना की यदि आप कुत्ते को रोटी खिला दें तो वो कभी आपको काटेगा नहीं, इंसानों से इस व्यवहार चेष्ठा नहीं की जा सकती। अपने तमाम मतभेदों के बावजूद सड़कों के बाशिंदे आपस में एक अद्भुत सामंजस्य, एक अनोखा तालमेल बना लेते हैं।
रामभरोसे ने मुझे चाय की प्याली थमाई और इस से पहले की में गरमागरम चाय की चुस्की से अपनी बर्फ हो चुकी बुद्धि को जगाता, एक कर्णभेदी चीख ने मेरी हड्डियों के विब्रशन को 440 वोल्ट का ज़ोरदार झटका दे डाला। चाय तो गई गई साली इतनी ठंड में हाथ भी जला गई।
"ये लो बेटा! देखो साला आंख का अंधा संजय गांधी की औलाद।" रामभरोसे ने गल्ले के पीछे से चुटकी ली। "लीजिए भैय्या आप ये दूसरी प्याली ले लीजिए। पैसे की कोई फिक्र नहीं है।"
मैंने पलट के सड़क की जानिब देखा तो छोटे महाराज सड़क की मध्य रेखा की ओर दौड़ लगा रहे थे। टॉमी बेचारा, कचरे के डब्बों का बादशाह, अपनी रियासत का मुआयना करते करते, एक सरकारी बस की चपेट में आकर शहीद हो चला था। बहरहाल, तीन सेकंड के लिए लोगों ने देखा, कुछ ने पांच सेकंड के लिए। फिर बस अपने टाइम टेबल में बिना कुछ फेरबदल किए आगे बढ़ गई और सब कुछ जनवरी की किसी साधारण सुबह की तरह वापस सामान्य हो गया। मैंने भी दो चार अभद्र शब्द अपने मन में बस वाले को बोले और जले हुए हाथ से चाय की दूसरी प्याली उठाई। कुत्ते की मौत पर लोगों को दुख नहीं हुआ ऐसा नहीं था, पर कुत्ता था तो कुत्ते जैसी ही प्रतिक्रिया मिलेगी। टॉमी कोई मेरा पालतू तो था नहीं कि उसकी लाश की भी ज़िम्मेदारी में उठाऊं। उसके लिए कब्र खोदूं, नमक की बोरियां भरूं, आंसू बहाऊँ और ऊपर से मिट्टी डाल कर ईश्वर से कामना करूं की है प्रभु मेरे प्रिय टॉमी की आत्मा को शांति दे। ये सब चोंचले आवारा कुत्तों पर लागू नहीं होते। पालतू कुत्ते वो समझदारी, वो मुस्तैदी खो देते हैं। आवारा कुत्ते बिना किसी हो हल्ले के दुनिया से रुखसत लेते हैं। उनकी लाशें बिना किसी को परेशान किए कारों के नीचे कुचलती हुई सपाट होती रहती हैं। मौत के पश्चात भी वो कौव्वों चीलों चूहों का पेट भरता है।
आपने कभी किसी सड़क पर मरे हुए कुत्ते की आंखों में झांका है? खुद की तक़दीर नज़र आती है उनमें।
अचानक खोमचे पर गर्मागर्मी होने लगी की आखिर गलती है किसकी। कुछ ने बस ड्राइवर को शराबी बताया, कुछ ने कहा की कुत्ता पागल था, कुछ ने कहा ये साली सारी व्यवस्था ही भ्रष्ट है तो कुछ ने देशविरोधी माओवादी, चीनी, पाकिस्तानियों का नाम लिया। अब डेमोक्रेसी है। सबको अपना अपना मत रखने का हक़ है। इस मुख्यधारा में शामिल होने के लिए जैसे ही मैंने अपना फिकरा छोड़ने के लिए मुंह खोला, एक और गगनभेदी चीत्कार ने दूसरी चाय की प्याली भी मेरे हाथ से गिरा दी।
पलट के देखा तो इस बार एक बड़ी संख्या में लोग सड़क की मध्यरेखा की ओर रफ़्तार से बढ़ते दिखे। निरंतर चलते ट्रैफिक ने भी एक छोटा सा अल्पविराम लिया। इस बार कोई टॉमी नहीं हमारे छोटे महाराज अपनी नाक के बाल तोड़ते तोड़ते एक ट्रक के नीचे आकर वीरगति को प्राप्त हो गए। लोगों ने महाराज की लाश उठाकर सड़क के किनारे रख दी। बेघर इंसान और आवारा कुत्ते में बस यही धागे बराबर का फ़र्क़ है। इंसान की लाश उठाकर लोग सड़क के किनारे रख देते हैं।
मैं कोई खादी कुर्ता, गंदा झोला पहन के पिछड़ों का झंडा उठाए घूमने वाला भावुक आंदोलनकारी नहीं हूं, पर जनवरी की उसी कड़कड़ाती शाम को मैंने रामभरोसे के खोमचे के किनारे दो मोमबत्तियां सड़क की इस रियासत के उन दो गुमनाम आकाओं के नाम जलाई, जिनकी कोई भी कहानी किसी इतिहास के किसी पन्ने में दर्ज नहीं होगी।
Inspiration - http://www.thehindu.com/opinion/op-ed/straydom-ode-to-a-nameless-friend/article8663470.ece