फरहात

चाँद का आलम बुझा बुझा था, रोशन था मैं तेरी याद में...
नींद की झूठी चादर ओढे, जाग रहा था तेरी याद में

सर्द हवा के हर झोंके में, तेरी साँसे गर्म बसी थीं...
रजनीगंधा डाल थी सूनी, महक रहा था तेरी याद में

रात की सारी वुसअतें भी, तेरे नाज़ में झुकी हुई थीं...
मैखानों में जाम थे खाली, मदहोशी थी तेरी याद में

सहर की पहली शुआ में बेशक, नूर तेरी दो आंखों का था...
जिन्दां में मक्तूल था आजिज़, आजादी थी तेरी याद में

तेरी याद में जीना मरना, तेरी याद में खो जाना...
ज़ाहिद सारे ज़ार ज़ार हैं, राह-ए-दहर है तेरी याद में....

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