मृग तृष्णा

मैं सारी रात जागता हूँ सूरज की पहली किरण की रोशनी को अपनी मुट्ठी में क़ैद करने के निरर्थक प्रयास में अपने अस्तित्त्व को नष्ट करता जा रहा हूँ कभी आँख लग जाती है तो सपने देखता हूँ सपने टूटते हैं, कुछ याद नहीं रहता, बस एक एहसास बाक़ी रह जाता है जो हिम्मत देता है तब तक जगे रहने की जब तक नींद ना आये दुःख, दर्द, हंसी, ख़ुशी, प्रेम, द्वेष, क्रोध, ममता कुछ भी नहीं बचा सर्दियों की धूप की गरमाहट, बारिश की पहेली बूँद, फूलों की खुश्बू, बरगद के पेड़ की शीतल छाँव, ठण्डी हवा का झोंका - इन सब के मायने पिछली बरसात में धुलते चले गए कहीँ पढा था कि आनंद और शांती एक दूसरे के विपरीत होते हैं ना आनंद है ना शांती, बस एक इंतज़ार है जिसे बस महसूस किया जा सकता है छूने के लिए हाथ बढ़ाओ तो हाथ में बस ख़ाक आती है, देखने की कोशिश करो तो आंखें धूमिल हो जाती हैं मैं तुम्हे देखना चाहता हूँ, सुनना चाहता हूँ, तुमसे कुछ कहना चाहता हूँ, तुम्हे छूना चाहता हूँ, तुम्हारे साथ जीना चाहता हूँ.........पर ना जाने कब सेहर होगी.....कब सूरज निकलेगा......और कब मैं उस किरण को छू पाउँगा......


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